वर्ष 1977 के दिन थे। चिपको आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के हर पहाड़ी जिल्ले में धीरे धीरे फ़ैल रहा था। लखनऊ से बहुत दूर, उसके पहाड़ी जिल्ले नैनीताल में सुबह बहुत शांत थी, किसी को अंदेशा नहीं था की शाम तक क्या क्या बदलने वाला है। बात है 28 नवंबर 1977 की, सब लोग अपने समय से उठे, जंगलात के अफसर, प्रशाशन, सामान्य नागरिक, और आंदोलनकारी। प्रशाशन आत्मविश्वास से लबालब था कि कुछ नहीं होगा या होगा भी तो छुट पुट ही कुछ होगा।
बच्चे समय से अपने अपने स्कूलों को जाने लगे, जान जीवन अपने अपने कार्यों में जाने लगा। कुछ आंदोलनकारी बहुत कम संख्या में इधर उधर दुबके हुए थे, शाशन प्रशाशन उनको गिरफ्तार नहीं कर पाया था रात में।
इस सब का कारण था, सरकार कुमाऊं रेंज के जंगलो को नीलम करके वाले थे, करीब 9 बजकर 30 मिनट पर ठेकेदार शैले हॉल की ओर आने लगे। पूरे शहर में 144 धरा लगी हुयी थी। आंदोलनकारी कम संख्या में आकर शैले हॉल के गेट के आगे जमा होने लगे थे। और तभी 1 युवक हुड़का (एक वाद्य यन्त्र) को बजाते हुए आया और गाने लगा "आज हिमाल तुमन कैं धत्यूँछ, जागौ जागौ हो मेरा लाल" जो कुमाउनी में बोलै जा रहा था और इसका हिंदी में मतलब है की "हिमालय के लाल आज हिमालय तुझे पुकार रहा है", यह था जनमानस को जगाने के लिए गिरीश तिवाड़ी गिर्दा का हुंकार।
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लोग गिर्दा के साथ जुड़ने लगे, स्कूल जा रहे कई बच्चे भी गिर्दा के हुड़के की थाप और गायन से प्रभावित होकर साथ जुड़ने लगे और समूह बनाने लगा। गिर्दा गिरफ्तार हुए और हल्द्वानी के जेल में लाये गए। जेल में डालने से पहले जो मिल्कियत उन्होंने बाहर सौंपी थी वह था हुड़का, बीड़ी का बण्डल और 1 रुपये का नोट।
जनकवि गिर्दा का जन्म 10 सितम्बर 1945 को ग्राम ज्योली, हॉलबाग़ ब्लॉक अल्मोड़ा जिल्ले में हुआ था। उनके पिता का नाम हंसादत्त तिवारी और माता का नाम जीवंती तिवारी था, राजकीय अन्तर कॉलेज अल्मोड़ा में उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा ली और फिर नैनीताल आ गए। गिर्दा PWD में SOIL TESTING विभाग में कार्यरत हुए और पीलीभीत आये, फिर लखीमपुर खीरी गए और वहा पर कुछ आंदोलनकारियों से मिले, 22 वर्ष की उम्र में इस मुलाक़ात ने उनका जीवन समाज के लिए समर्पित कर दिया और वह रंगमंच कलाकार और सामाजिक कार्यकर्ता, आंदोलनकारी बन गए, शुरू में वह चिपको आंदोलन से जुड़े और बाद में उत्तराखंड आंदोलन के साथ जुड़े रहे। 22 अगस्त 2010 को गिर्दा ने इस दुनिया को शारीरिक रूप से अलविदा कह दिया।
खिलंद व्यक्तित्व के धनी गिर्दा हमेशा हर ईमानदार कार्य को करने के लिए तैयार, लड़ने मरने को हमेशा तैयार, सरकार, प्रशाशन से भिड़ने को तैयार रहने वाले गिर्दा ने हमेशा से पहाड़ी क्षेत्र में हो रहा शोषण के खिलाप अपनी आवाज़ उठायी। जान संघर्षों से उनका आजीवन नाता रहा।
गिर्दा का ह्रदय पहाड़ी लोगो के शोषण होने के कारण हमेशा दुखी रहा पर वो आशावादी थे, इसी लिए उन्होंने उत्तराखंड राज्य आंदोलन के समय ये कविता लिखी-
जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में
चाहे हम ने ल्या सकूं, चाहे तुम नि ल्या सको
जैंता क्वै न क्वै त ल्यालो, ये दुनी में
जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में……
एक ख़ुशी का दिन तो आएगा इस दुनिया में, चाहे हम नहीं ला सके, या तुम नहीं ला पाए, कोई न कोई तो उस दिन को लेकर आएगा।
पहाड़ों में नदियों के अंधाधुंध दोहन पर उन्होंने लिखा-
अजी वाह! क्या बात तुम्हारी,
तुम हो पानी के ब्योपारी
खेल तुम्हारा तुम्हीं खिलाड़ी,
बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी।
सारा पानी चूस रहे हो,
नदी समन्दर लूट रहे हो।
गंगा-यमुना की छाती पर,
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो।