15 सितंबर 1965 का वह युद्ध जब पाकिस्तानी टैंक भारतीय सेना पर हमलावर होने वाली थी। इस बड़े हमले को नाकाम करने में कैप्टन जयंत सरनजमे की बहुत बड़ी भूमिका रही।
भारत-पाक के बीच हुआ 1965 का युद्ध जिसमें दोनों पक्षों में इस बात को लेकर बहस थी कि किसका पलड़ा भारी था। तब इस युद्ध की असली कहानी हमने देश के लिए इस युद्ध में लड़ चुके वीर सपूत एक पूर्व सैनिक की जुबानी सुनी। 23 सितंबर 2020 को 1965 के भारत-पाक युद्ध को भले 55 साल हो गए हो लेकिन उस युद्ध के जांबाज कैप्टन जयंत सरनजमे को वह युद्ध आज भी कल की बात जेसै लगता है। जब उन्होंने अपनी शेरदिली के दम पर 15 सितंबर 1965 को पाकिस्तानी टैंक द्वारा भारतीय सेना पर किए गए हमलों को नाकाम कर दिया था।
जानिए कैप्टन जयंत की कहानी उन्हीं की जुबानी
उस काली रात का ऐसिड टेस्ट
15 सितंबर 1965 की वो रात हमारे लिए ऐसिड टेस्ट की तरह थी, सियालकोट कैंटोनमेंट और उसके सामने स्थित 168 इन्फेंट्री ब्रिगेड सेक्टर में ब्रिगेड कमांडर ब्रिगेडियर ए के लूथरा ने 8000 लैंड माइंस बिछाने के लिए हमें सिर्फ 6 घंटे का वक्त दिया था। इससे दो दिन पहले ही 13 सितंबर को पाकिस्तान पैटन टैंकों ने इंडियन आर्मी बटालियन एरिया में हमला करते हुए हमारे सैनिकों द्वारा 12 सितंबर को जीती गई कलारबांदा पोस्ट से पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था। यह पोस्ट भौगोलिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है जिसमें एक हिललॉक था जो कि हमें दुश्मनों से एक कदम आगे रखती हैं। Motivational Story In Hindi
इसे भी पढ़ें: जानिए परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद के बारे मे | Veer Abdul Hamid
15 सितंबर 1965 की सुबह
15 सितंबर की सुबह हुई, ऑपरेशन मीटिंग में कर्नल प्रेम कुमार जोकीहाट JAK रेफर्स के कमांडिंग ऑफिसर थे। उन्होंने बटालियन को पीछे हटाने का फैसला किया, क्योंकि उनके पास आर्टिलरी सपोर्ट नहीं था, उन्होंने इस विषय पर सफाई भी दी। कर्नल प्रेम कुमार ने 5 अगस्त 1965 को चिनाब नदी के पास अखनूर में अपने 900 में से 300 सैनिकों को पाकिस्तानी टैंकों से कुचले जाते देखा था। कलर प्रेम कुमार के दिमाग में अभी भी वह बुरी याद थी, जिससे सैनिकों का मनोबल टूट सा गया था और अब 13 सितंबर को फिर से पाकिस्तानी पैटन टैंकों ने इनकी परेशानी और बढ़ा दी थी क्योंकि इनके पास बस राइफल और मशीन गन थी कोई भी एंटी टैंक हथियार नहीं था।
जिद पर अड़ गए ब्रिगेडियर ए के लूथरा
ब्रिगेड कमांडर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे, वह चाहते थे कि कर्नल प्रेम शॉप पर गए काम को हर हाल में पूरा करें। उन्होंने कर्नल प्रेम कुमार को अपनी पैदल सेना के साथ आगे बढ़ कलारबांदा पोस्ट को फिर से अपने कब्जे में लेने का आर्डर सुना दिया। इस काम में छुपे खतरे को देखते हुए कर्नल की जुबान को मानो काठ मार गया और वह सोचने लगे कि आखिर सिर्फ पैदल सेना के सहारे हम यह दुष्कर कार्य कैसे करेंगे। कर्नल ने मांग की कि उन्हें अपनी बटालियन एरिया के सामने लैंडमाइन चाहिए जिससे काउंटर अटैक के वक्त उनके सैनिकों को थोड़ा सुरक्षा मिले।
8000 लैंड माइंस की कहानी
ब्रिगेड कमांडर ए के लूथरा ने 8000 माइंस देते हुए सेकंड लेफ्टिनेंट सरनजमे को इन्हें लगाने की जिम्मेदारी दे दी। सेकंड लेफ्टिनेंट जयंत सरनजमे ने इस काम की जिम्मेदारी लेते हुए मार्किंग, खुदाई और माइंस की ढुलाई के लिए कर्नल प्रेम के बटालियन से अतिरिक्त जवानों की मांग की, कन्नड़ प्रेम के पास अपने राइफलमैन स्कोर खुदाई और भलाई के काम में लगाने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था, उन्होंने हां कर दी। 8 JAK राइफल्स के अलावा दो अन्य बटालियंस ने भी इस काम में मदद की। ब्रिगेड कमांडर ने अगला आदेश माइंस कोटक में ही आरंभ करने का आदेश दिया, आनंद की आमतौर पर माइंस को पिक में डालने के बाद उसे आर्मी किया जाता है। इस काम के लिए ब्रिगेड कमांडर द्वारा सेकंड लेफ्टनंट जयंत सरनजमे को चुनने के पीछे का कारण कमांडर का लेफ्टिनेंट पर अटूट भरोसा था। युवा सरनजमे कुछ ही महीने पहले हजारों लैंडमाइंस को लगा और निकाल चुके थे।
युवा लेफ्टिनेंट की शेरदिली उस रात 10 ट्रकों में 8000 लैंडमाइंस को लोड किया गया, सेकंड लेफ्टिनेंट कर्नल सरनजमे और उनके 61 जवानों ने अपनी जान को जोखिम में डालते हुए एक्टिवेटेड लैंडमाइन से लदे ट्रकों में अपनी यात्रा शुरू की। इस अंधेरी रात में ट्रक सियालकोट की तरफ बढ़ने लगा मिलिट्री के ड्राइवर ने बिना हेडलाइट जलाए उन लोडेड ट्रकों को बडी कुशलता से मैदान के रास्ते से निकाला इस मूवमेंट को छुपाने के लिए ट्रकों की पार्किंग लाइट को भी बंद कर दिया गया था। आर्मी ट्रकों के टायर प्रेशर को इस तरह से मैनेज किया गया था कि ट्रक उछले ना जिससे उनमें रखी माइंस फटकर भीषण दुर्घटना का कारण ना बने।
दुश्मन को भनक भी नहीं लगी, सब कुछ प्लान के मुताबिक ही हुआ और सारी टीमें अपनी-अपनी मंजिल पर पहुंच गई जिससे लैंडमाइंस को लगाने का काम आधी रात से 1 घंटे पहले ही निपट गया। इस वक्त तक दुश्मन भी सतर्क होता दिख रहा था पाकिस्तानी आर्मी ने मोर्टार दागने शुरू कर दिए गए थे मशीन गन की फायरिंग, बमों का फटना, गुड़िया हर तरफ बम धमाकों का ही शोर था। ऐसा लग रहा था मानो घड़ी की सुइयों की आवाज कुछ ज्यादा ही आ रही थी। ऐसी परिस्थितियों में किसी सामान्य व्यक्ति का दिल 2 गुना तेजी से धड़कने लगता है लेकिन ऐसे हालात से निपटने के लिए ट्रेंड किए गए सेकंड लेफ्टिनेंट जयंत सरनजमे अपने जवानों के साथ तीन ग्रुप में बंट कर शांत लेकिन तेज रफ्तार और पूरे कौशल के साथ एक के बाद एक गड्ढे में लैंडमाइन बिछा रहे थे।
दुश्मन की नाक के नीचे लगा डाले लैंडमाइंस जयंत के हौसले और हिम्मत का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस रात को उन्होंने अपने जवानों के साथ दुश्मन के खेमे से महज 1500 मीटर की दूरी तक माइंस बिछा डाली थी और दुश्मन को कानों कान खबर नहीं हो पाई। लेफ्टिनेंट जयंत ने बड़ी होशियारी से इस काम में पेड़ों की सूखी पत्तियों की मदद ली और पक्की सड़क पर भी लैंडमाइन बिछाकर उसे सूखी पत्तियों से झगड़ा डाला। अपनी इस काम के लिए उन्हें 1966 में गैलंट्री अवॉर्ड सेना मेडल से नवाजा गया, लेकिन आज भी उनकी वीरता किसी अनसुनी दास्तान की तरह लगती है।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि आज बहुत कम या ना के बराबर लोगों को पता होगा की कैप्टन जयंत ने 1965 की लड़ाई में क्या किया था। कैप्टन जयंत को यह बात पर गुजरती है कि रिकॉर्ड्स में यह बात कहीं भी नहीं है, कि उन्होंने 1965 की लड़ाई में 8000 लैंडमाइंस बिछाए थे।