उत्तराखंड के लोगों का जल जंगल और जमीन से एक अटूट रिश्ता है। कई सालों से लोग अपने हक़ हकूक, अपने जंगलों को बचाने के लिए एक सतत प्रयास में लगे हुए हैं। चाहे फिर वह 1973 का चिपको आंदोलन हो जिसने सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित करके एक अलग ही पहचान उत्तराखंड की बनायी या फिर श्री सुन्दर लाल बहुगुणा का टिहरी बांध के लिए लड़ी गयी लड़ाई। या फिर भूतपूर्व सैनिक जगत सिंह जंगली के द्वारा उगाया गया हरा भरा वन हो।
यह तो कुछ चर्चित नाम हैं जो मीडिया या सोशल मीडिया में आकर जान मानस तक पहुंच चुके हैं, परन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने जल, जंगल और जमीन के लिए एक शांति पूर्ण तरीके से कार्य कर रहे हैं, जिनको न प्रसिद्ध होने की लालसा है और न ही कही किसी से कुछ पाने की ललक। इच्छा यही है की वह अपनी आने वाली पीडियों के लिए भूमि को ऐसे ही सौंप के जाएँ जैसे उनके पूर्वजों ने उनको दी है। कहने का तात्पर्य यह है की आने वाली पीडियां शुद्ध हवा में सांस ले सके, उनको शुद्ध पानी मिले और उनकी जिंदगी बिना किसी बीमारी के चले।
ऐसे ही एक शख्श हैं गजेंद्र कुमार पाठक, जो अल्मोड़ा में शीतलाखेत के रहने वाले हैं। शीतलाखेत अल्मोड़ा जिले से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ है, समुद्र तल से शीतलाखेत की ऊंचाई लगभग 1900 मीटर है। यह एक प्रसिद्ध व खूबसूरत हिल स्टेशन है। जहा एक तरफ शीतलाखेत से सुन्दर हिमालय को निहारा जा सकता है वही दूसरी ओर स्याही देवी के जंगल में समय बिताने का आनंद लिया जा सकता है।
गजेंद्र कुमार पाठक पेशे से स्वस्थ्य सेवाओं से जुड़े हुए हैं, परन्तु उनका प्रकृति के लिए प्रेम उनको अपने जंगलों के संरक्षण के लिए प्रोत्साहित करता है और यही कारन है की उनके द्वारा किया गया सतत प्रयास आज स्याही देवी के जंगलो में दिखना शुरू हो चुका है और वह के जंगलों में नयी हरियाली का आगाज़ हो चुका है।
प्रायः हम लोग एक ही बात सुनते हैं की पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण, जैव-विविधता संरक्षण के लिए पेड़ो की कटाई बंद करो और वृक्षों को लगा। और हर वर्ष पूरे देश में अरबों रुपयों का खर्चा केवल पेड़ो को रोपने में किया जाता है। कुछ पेड़ सिर्फ कागजों में लगते हैं और कुछ पेड़ रोपने के बाद बड़े वृक्ष में तब्दील होने से पहले ही मर जाते हैं, क्योंकि पौधे के पेड़ बनने में बहुत सी बाधाएं हैं.कम उम्र के पौधे का रोपण, अनुपयुक्त प्रजाति का चयन,विपरीत मौसमी दशाएँ, जंगलों की आग, जानवरों का चुगान आदि। यदि इन रोप गए पौधों में 10% पेड़ भी अगले १० साल तक जीवित रह पाते तो आज हमारे देश में जल स्रोतों, जैवविविधता और पर्यावरण का इतना बड़ा संकट खडा़ नहीं हो सकता था।कुछेक संस्थाओं, व्यक्तियों द्वारा छोटे पैमाने पर किये जा रहे सफल पौधारोपण को अपवाद माने तो अधिकांशतः पौधारोपण के परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं हैं।
ऐसे में नये जंगल विकसित करने में सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति जिसे Assisted Natural Regeneration भी कहा जाता है,बेहद कारगर पद्धति साबित हो रही है। सल्ला, नौला, भाकड़, धामस, स्याही देवी, सड़का, गड़सारी, सूरी, बरसीला, पड्यूला, मटीला, खरकिया, आनंदनगर तथा चंपाखाली आदि गांवों की महिलाओं, युवाओं की जनसहभागिता तथा वन विभाग के कतिपय कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारियों के सहयोग से स्याही देवी-शीतलाखेत क्षेत्र के आरक्षित जंगल में लगभग 1100 हैक्टेयर क्षेत्रफल में इस पद्धति से बांज, बुरांश, काफल, अंग्यार, उतीस आदि चौडी़ पत्ती प्रजाति के पेड़़ो से सुसज्जित जंगल विकसित करने में सफलता मिली है।
क्या है ANR पद्धति -
इस पद्धति में जंगल को दुबारा से विकसित करने के लिए पौधरोपण नहीं किया जाता है। पुराने और बहुत पुराने वृक्षों की जड़ों से नयीं कोंपले फूटती हैं और समय के साथ वह पेड़ के रूप में परिवर्तित हो जाता हैं। एक जड़ से कई साड़ी कोंपले फूटती हैं और कई सरे वृक्ष जंगल में हरे भरे हो जाते हैं। साधारण शब्दों में जंगल को दुबारा विकसित करने के लिए केवल और केवल जंगल की रक्षा करनी है, आग से, जानवरों से, या फिर इंसानो से जो की कटाई करते हैं। और फिर प्रकृति को अपना काम स्वयं करना आता है।
वर्ष 2004-05 में कोसी नदी जो की अल्मोड़ा जिले की एक प्रमुख नदी है, का पानी बहुत कम हो गया था तब वहां आस पास के कुछ बुद्धिजीवी कोसी नदी के पुनर्जीवन के लिए आगे आये और उसकी शुरुआत हुयी स्याही देवी जगंले से, वहां पर ANR पद्धति का प्रयोग करके जंगल को पुनर्जीवन दिया गया इसके फलस्वरूप कोसी नदी में एक बार फिर पानी का स्तर ऊपर हुआ। गांव गांव जाकर ग्रामीणों से चौडी़ पत्ती पेड़़ो को न काटने, जंगल में आग लगने पर आग बुझाने में मदद करने का आह्वान किया। हल, नहेड़ के लिए पेड़ न काटे जायें इसके लिए वी.एल. स्याही हल के विचार,परीक्षण, विकास तथा परिष्करण में विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा को सहयोग दिया गया ।वी एल स्याही हल के प्रयोग में आने से जंगल से कटने वाले बांज के पेड़ों की संख्या काफी कम हो गई है।, वन विभाग के साथ आग बुझाने में ग्रामीणों की हमेशा सहभागिता रहती ह।
इस पद्धति से सभी सामाजिक संस्थानों को उत्तराखंड में ही नहीं अपितु पूरे देश में प्रयोग में लाना चाहिए। जंगल को बचने से ही मानवता बची रहेगी और हमारी आने वाली पीड़ी को हम एक अच्छी बिमारियों से मुक्त ज़िंदगी दे पाएंगे।