Why Dandi Yatra was Started
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दांडी मार्च : 24 दिनों की पदयात्रा ने बदला स्वतंत्रता आंदोलन का रूप

अंग्रेजी हुकूमत का भारत में पूर्ण रूप से शासन स्थापित हो ही चुका था और देश के गवर्नर जनरल के लिए दिल्ली में एक नया व आलीशान वायसराय हाउस बन चुका था। इसी वायरसराय हाउस से वह भारत के सत्ता पर काबिज होकर भारत का शासन चला रहे थे। आज से ठीक 91 साल पहले ब्रिटिश सरकार ने एक ऐसे कानून को पारित किया था जो हजारों मील दूर समुद्र किनारे नमक मजदूरों के लिए किसी जहर से कम नहीं था। इस कानून में गरीब हिंदुस्तानियों को नमक के लिए टैक्स चुकाना अनिवार्य कर दिया गया था जिसके विरोध स्वरूप स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी मैदान में कूद पड़े। 62 साल के बापू ने इस कानून के विरोध के लिए अहमदाबाद के साबरमती से दांडी गांव के लिए पैदल यात्रा शुरू कर दी। अपने 78 अनुयायियों के साथ बापू ने कदमताल करके 4 जिलों के 48 गांवों को इस जत्थे में शामिल कराया। लगभग 386 किलोमीटर की इस पैदल यात्रा को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में "दांडी मार्च" से जाना जाता है।


जब लगे 24 दिन


जिस वक्त भारत का गवर्नर जनरल लार्ड इरविन दिल्ली के अपने वायसराय हाउस में आराम फरमा रहा था ठीक उसी वक्त एक 'अधनंगा फकीर' राजधानी से बारह सौ किलोमीटर दूर ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को उखाड़ फेंकने का मादा रख रहा था। 12 मार्च 1930 को महात्मा गांधी ने साबरमती आश्रम से अपने 78 अनुयायियों के साथ दांडी के लिए यात्रा शुरू की, जो 6 अप्रैल 1930 की सुबह अरब सागर के किनारे बसे दांडी गांव पहुंची। 24 दिन की इस पदयात्रा में बापू ने 4 जिलों के 48 गांवों को इस ऐतिहासिक जत्थे में शामिल करके यात्रा पूरी कराई।


जब कहा कि 'मैं बालू से ही ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दूंगा'


अहिंसक व शांत राजनीतिक तौर पर विशाल जन समर्थन प्राप्त करके जब  बापू 6 अप्रैल 1930 के प्रातः सुबह दांडी गांव पहुंचे तो उन्होंने खड़े होकर अपनी चुटकी में रेत में नमक मिलाकर ब्रिटिश कानून को तोड़ दिया। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि "मैं इस एक चुटकी बालु में मिले नमक से ही ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला रहा हूं।"


जब गवर्नर जनरल ने किया नजरअंदाज


दरअसल अंग्रेजी सरकार ने एक कानून पास किया जिसमें यह प्रावधान था कि जो कोई भी भारतीय मजदूर समुद्र किनारे नमक बनाता है वह सरकार को इसका टैक्स अदा करें। गांधी जी के संज्ञान में जब यह मामला आया तो वे सैन्य खर्चों में कटौती व नमक कानून सहित कुल ग्यारह मांगों को लेकर महामहिम गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन के पास गए। 2 मार्च 1930 को बापू इन मांगों पर गवर्नर जनरल से चर्चा करना चाहते थे लेकिन सत्ता के नशे में चूर गवर्नर जनरल ने इन मांगों पर चर्चा तो दूर, इन मांगों को देखना तक नहीं समझा। गांधी जी इन मांगों पर सकारात्मक जवाब का इंतजार करते रहे लेकिन जब कोई प्रतिक्रिया वायसराय हाऊस से नहीं मिली तो उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत नमक कानून को निशाने में लिया और उसके कुछ दिनों बाद दांडी मार्च आरंभ कर दिया।


दुनिया को मिला अहिंसा का हथियार


गांधीजी अहिंसा के पुजारी थे उन्होंने इस यात्रा को बेहद अनुशासित तरीके से चलाने की चाहत रखी। इसी कारण उन्हीं लोगों को चुना गया जो इस यात्रा को शानदार तरीके से सफल बना सकें। गांधीजी के जत्थे के आगे से कुछ लोग दौड़ लगाकर गांव में पहुंचे थे और वही तय करते थे कि शाम को सत्याग्रही कहां रुकेंगे और बापू गांव में कहां पर संबोधन करेंगे। इस ऐतिहासिक यात्रा में शामिल लोगों ने सफेद खादी पहनी थी जिस कारण लोगों ने इस यात्रा को "सफेद नदी" भी कहा। यात्रा के दौरान लाखों लोगों ने गांधी जी का भाषण सुना और कई पत्रकारों को बापू ने इंटरव्यू दिया, जिसमें विदेशी पत्रकार भी शामिल थे। मुंबई के तीन सिनेमा कंपनियों ने उनकी इस यात्रा को कवर किया, जिससे गांधी नाम की आंधी यूरोप से लेकर अमेरिका तक पहुंच गई। उसी वर्ष टाइम्स पत्रिका ने महात्मा गांधी को 'मैन ऑफ द ईयर' घोषित किया। गांधीजी के इस यात्रा से प्रभावित होकर लोग सरकारी सेवाओं से त्यागपत्र देकर आंदोलन में शामिल हुए। इस सफल व अहिंसक आंदोलन के आगे ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा। गांधी जी की इस बेहद अनुशासित और अहिंसक आंदोलन से दुनिया को अहिंसा का हथियार मिला।

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