दिल में इक लहर सी उठी है अभी
कविता

दिल में इक लहर सी उठी है अभी

दिल में इक लहर सी उठी है अभी 

कोई ताज़ा हवा चली है अभी 


कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी 

और ये चोट भी नई है अभी 


शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में 

कोई दीवार सी गिरी है अभी 


भरी दुनिया में जी नहीं लगता 

जाने किस चीज़ की कमी है अभी 


तू शरीक-ए-सुख़न नहीं है तो क्या 

हम-सुख़न तेरी ख़ामुशी है अभी 


याद के बे-निशाँ जज़ीरों से 

तेरी आवाज़ आ रही है अभी 


शहर की बे-चराग़ गलियों में 

ज़िंदगी तुझ को ढूँडती है अभी 


सो गए लोग उस हवेली के 

एक खिड़की मगर खुली है अभी 


तुम तो यारो अभी से उठ बैठे 

शहर में रात जागती है अभी 


वक़्त अच्छा भी आएगा 'नासिर' 

ग़म न कर ज़िंदगी पड़ी है अभी 



शायर को अपने प्रिय का ख्याल आता है, जो उनके साथ नहीं है। वे सोचते हैं कि भले ही प्रिय उनके साथ शब्दों में बात नहीं कर रहा है, फिर भी उनकी खामोशी ही उनसे बातें कर रही है। यादों के द्वीपों से प्रिय की आवाज़ आती है। शहर की बेचैन गलियों में ज़िंदगी प्रिय को ढूंढ रही है। हवेली के लोग सो गए हैं, लेकिन एक खिड़की अभी भी खुली है। शायर अपने दोस्तों से कहते हैं कि रात अभी बाकी है और शहर अभी जाग रहा है। अंत में, शायर "नासिर" खुद को सांत्वना देते हैं कि "वक़्त अच्छा भी आएगा" और उन्हें "ज़िंदगी पड़ी है अभी"।


मुख्य भाव: बेचैनी, प्रिय की याद, उम्मीद


शैली: ग़ज़ल, रोमांटिक, भावुक

Trending Products (ट्रेंडिंग प्रोडक्ट्स)