लाल किला दिल्ली में स्थित एक ऐतिहासिक धरोहर है, यह किला समय समय पर राजनितिक सरोकार के साथ साथ अपनी यात्रा को आगे बड़ा रहा है। अभी 26 जनवरी को लाल किला पर सिख धर्म का 'निशान साहिब' को फहराया तो सारे देश में इसकी गंभीर आलोचना हुई, कुछ लोगो ने इसे भारतीय ध्वज का अपमान बताया तो कुछ लोगो ने इसे लाल किले की सदियों से चल रही गरिमा पर चोट बताया और कुछ लोगो ने दिल्ली पुलिस की नाकामी बताया। हालाँकि यह सब अब जाँच का विषय है और जांच टीम इसकी जांच भी कर रही है, आशा है जल्दी ही इस जांच का सफलतम फल देखने को मिलेगा।
तो अब हम बात करते है लाल किला की, इस किले ने कई सरकारों को आते जाते देखा तो आज़ादी की लड़ाई व आंदोलन देखे और आज़ादी से पहले कई शाशकों का राजपाट और पतन को भी आत्मसात किया। शाहजहां 1628 में आगरा के तख़्त पर बैठा तो उस वक़्त उसे वह छोटा किला ज्यादा नहीं भाया और उसके अंदर एक बड़े व भव्य किले की लालसा कुलबुलाने लगी, या फिर कुछ इतिहासकार बताते हैं कि सन 1631 में मुमताज़ की मृत्यु के बाद वह आगरा नहीं रहना चाहता था। शाहजहां ने राजधानी को आगरा से दिल्ली में स्थानांतरित करने का निर्णय लिया। दिल्ली को सातवीं बार फिर से बसाने का कार्य शुरू किया गया, उस वक़्त के मशहूर उस्ताद अहमद लाहौरी जो ताजमहल के आर्किटेक्ट थे, को दिल्ली में एक भव्य किले का डिज़ाइन करने का कार्य दिया गया, और फिर 29 अप्रैल 1639 को लाल किला के निर्माण का आदेश हुआ, फिर उसी वर्ष 12 मई से निर्माण कार्य शुरू हुआ। शाहजहां की आत्मकथा पादशाहनामा के अनुसार उस वक़्त शाहजहाँ ने हिन्दू और मुस्लिम धर्म गुरुओं से एक सही जगह का चुनाव करने को बोला तो उन्होंने फ़िरोज़ शाह कोटला और सलीमगढ़ के बीच की जगह को सुझाया। और इसी दरमयान शाहजहां ने शाहजहानाबाद शहर जो वर्तमान में पुरानी दिल्ली के नाम से जाना जाता है, के निर्माण का आदेश भी दे दिया था।
लाल किले का निर्माण
लाल किला का नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, लाल जिसका अर्थ है लाल रंग और किला को हिंदी में दुर्ग कहा जाता है, लाल रंग के बलुआ पत्थर को आगरा के नज़दीग फतेहपुर सीकरी में स्थित लाल पत्थर की खदान से निकल कर यमुना नदी से दिल्ली लाया गया। यह किला हिन्दू, पारसी व मुग़ल वास्तुकला का अद्भुद नमूना है। चांदनी चौक बाजार का निर्माण उसी वक़्त शाहजहां की बेटी जहाँआरा ने करवाया और साथ ही बेगमसराय का निर्माण यात्रियों के लिए किया गया वर्तमान टाउन हॉल इसी जगह पर स्थित है।
शाहजहाँ को अपने बड़े बेटे दारा शिकोह से बहुत प्रेम था, शाहजहां ने अपने बाकी की संतानो को दूरस्थ इलाकों में भेज दिया था और दिल्ली की गद्दी दारा शिकोह को ही मिलने वाली थी। दारा शिकोह का महल दिल्ली में वर्तमान निगमबोध घाट के समीप बनाया गया। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि शाहजहां हर साल दारा शिकोह को 2 करोड़ रुपये दिया करता था। लाल किले में दीवान-ऐ-आम साधारण जन मानस के दुःख दर्द या शिकायत सुनने को बनाया गया दरबार था और दीवान-ऐ-खास को केवल मंत्रियों या फिर कुछ खास गणमान्य लोगो से विचार विमर्श के लिए बनाया गया। लाल किले में 15 जून 1648 को बादशाह शाहजहाँ ने प्रवेश किया। इस किले को किला-ऐ-मुबारक के नाम से भी जाना जाने लगा।
सत्ता के षड़यंत्र का गवाह लाल किला
दारा शिकोह को सभी धर्मो में विशेष रूचि थी, शायद वह जनता के बीच एक आदर्श शाशक के रूप में आने के लिए सभी धर्मो के गूढ़ सिद्धांतों को समझ रहे थे, तो वही दूसरी ओर औरंगज़ेब को लगता था कि दारा शिकोह अत्यंत धार्मिक है और देश की सुरक्षा व विकास के महत्वपूर्ण फैसले लेने के काबिल नहीं है। या फिर शायद औरंगज़ेब कि महत्वाकांक्षाएं दिल्ली की गद्दी पर बैठने की थी, यही वजह थी कि औरंगज़ेब ने दारा शिकोह के खिलाप षड़यंत्र किया।
शाहजहां 1658 के साल में बीमार होने लगा, दारा शिकोह और औरंगज़ेब की गद्दी को पाने कि इच्छा इतनी प्रबल थी कि दोनों भाइयों के बीच 1659 में आगरा के समीप युद्ध हुआ और दारा शिकोह के विश्वासपात्र सेनापति जो एक अफगान था और उसका नाम मलिक था, ने ही दारा शिकोह को औरंगज़ेब के हाथों में दे दिया। 8 सितम्बर के दिन दिल्ली के लाल किले वाली सड़क पर लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था, दारा शिकोह और उनके बेटे मंडल को एक हाथी के ऊपर बैठने को कहा गया था। दोनों को बहुत बेइज़्ज़त किया गया, इतिहासकार लिखते हैं कि दारा शिकोह ने बेहद ही साधारण कपडे पहने थे, न मोतियों कि माला थी और न ही कोई और राजशाही पोशाक। एक सैनिक उनके पीछे नंगी तलवार लेकर चल रहा था, जिसे आदेश था कि अगर दारा शिकोह भागने की कोशिश करें तो उनकी गर्दन को कलम कर दिया जाये। तत्पश्चात औरंगज़ेब कि अदालत में उनको पेश किया गया, जहाँ औरंगज़ेब ने दारा शिकोह को मृत्युदंड दे दिया, अगले ही दिन उनको मृत्यु दे दी गयी और उनके शव को बिना किसी धार्मिक क्रियाकर्म के हुमायूँ के मकबरे में कब्र की जगह दे दी गयी।
औरंगज़ेब कि सल्तनत 1658 से 1707 तक चला और फिर धीरे धीरे मुग़ल साम्राज्य का अंत होने लगा। उसके बाद मुहमद आज़म शाह और बहादुर शाह को गद्दी मिली, परन्तु वह भी ज्यादा दिन नहीं चले, फिर आये जहांदार शाह और वह भी एक वर्ष से ज्यादा नहीं चल पाए, जहांदार शाह को आगरा के युद्ध में उनके भतीजे फर्रुखसियर ने 10 जनवरी 1713 को हराया और दिल्ली कि गद्दी उनको मिल गयी। फिर आये मुग़ल के अगले शाशक रफ़ी-उद-दरजात फिर शाहजहाँ द्वितीय उनके बाद मुहम्मद शाह और फिर अहमद शाह बहादुर 1748 से 1754 तक तेहरवें मुग़ल शाशक बने।
कोहिनूर और मयूरासन कि लूट
मुहम्मद शाह 12 वें मुग़ल शाशक थे, उनके समय ईरानी लड़का या ईरान का शाह नादेर शाह 1739 में कंधार से होते हुए भारत आया, वह गज़नी, काबुल, लाहौर और सिंध को जीतते हुए दिल्ली की तरफ आया, करनाल के युद्ध में नादेर शाह ने केवल 3 घंटो में ही मुहम्मद शाह की सेना को परास्त किया और दिल्ली के लाल किले से मयूरासन के साथ साथ कोहिनूर हीरे को लूटकर ले गया था। यहाँ से मुग़लों का पूर्ण पतन और अंग्रेज़ों का उदय ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा होने लगा।
फिर क्रमशः आलमगीर द्वितीय, शाहजहाँ तृतीया, शाह आलम द्वितीय, जहाँ शाह चतुर्थ, अकबर द्वितीय, बहादुर शाह द्वितीय या बहादुर शाह ज़फर मुग़ल शाहक बने। मुग़ल सल्तनत का सबसे अच्छे दौर के बाद अब लाल किला मुग़ल साम्राज्य का अंत देख रहा था।
यह लाल किला गवाह है मराठा, सिख, रोहिल्ला, अंग्रेज़ व अफगानो द्वारा समय समय पर गयी लूटपाट का। मुहम्मद शाह के बाद उसका बेटा अहमद शाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा परन्तु ऐसी कहानी प्रचलित है कि अहमद शाह की माँ का दोस्त जावेद खान था और वही मुहम्मद शाह को एक कठपुतली की तरह चलाता था, बाद में अवध के नवाब सफदरजंग ने जावेद खान को मरवा दिया था।
मराठा भी इसी दौर में उत्तर भारत में अपना विस्तार कर रहे थे। नवाब सफदरजंग मराठाओं से युद्ध करने को तैयार नहीं थे, इसी वजह से उन्होंने मराठा के साथ संधि कर दी थी, नवाब सफदरजंग का मुख्य उद्देश्य अपने अवध को मराठों से बचाने का था। वह साल था 1757 का जब अहमद शाह अब्दाली या अहमद शाह दुर्रानी ने अपनी सेना लेकर दिल्ली पर जीत हासिल की। अब्दाली नादेर शाह का खास था और वह सन 1739 में उस सेना का कमांडर था जिस सेना के साथ नादेर शाह ने दिल्ली को फतह किया था। अब्दाली ने दिल्ली को जीतने के बाद अपने बेटे तैमूर की शादी आलमगीर की बेटी के साथ कर दी थी। उसने दिल्ली से करोड़ों की सम्पति को व कुछ महिलाओं को लेकर अफगानिस्तान पहुंच गया और आलमगीर दिल्ली का शाशक बन गया। साल नवंबर 1759 को आलमगीर को बताया गया की उनसे मिलने कोई प्रसिद्ध धार्मिक व्यक्ति आया है और वह कोटला फ़तेह शाह में जब प्रसिद्ध धार्मिक व्यक्ति से मिलने के उद्देश्य से गया तब उसे इमाद-उल-मुल्क के कातिलों ने मार दिया और शाह आलम द्वितीय बादशाह बन बैठा।
अंग्रेज़ों का अधिपत्य
शाह आलम द्वितीय के समय से लाल किले ने एक नया अध्याय को आत्मसात करना था और गवाह होना था उस लम्बी गुलामी के दौर का जिसका संघर्ष अविस्मरणीय है। शाह आलम ने अंग्रेजों के साथ समझौता कर दिया था और अब लाल किले से फैसले नियुक्त किलेदार लेता था। एक किलेदार का वार्षिक वेतन लगभग 12 लाख रुपये था।
बहादुर शाह ज़फर जो दिल्ली के गद्दी में बैठे तो थे परन्तु वह अंग्रेजों के किलेदार से ज्यादा कुछ नहीं थे, वह स्वयं से मुख्य फैसले नहीं ले सकते थे परन्तु रहते पिछले शहंशाहों के जैसे ही थे, जनता को दर्शन हर रोज दिया करते थे। फिर आया वर्ष 1857 जब आजादी का पहला विद्रोह मंगल पांडेय के द्वारा बंगाल के बैरकपुर छावनी में किया गया, तो विद्रोह की वह ज्वाला मेरठ से होते हुए दिल्ली पहुंची और बहादुर शाह ज़फर को एक उम्मीद की किरण नज़र आयी। बादशाह ज़फर ने पहले तो सेना का समर्थन किया और गुस्साए सैनिकों ने कई अंग्रेज़ अधिकारीयों को मौत के घाट उतार दिया, फिर जब अंग्रेज़ इस से अत्यधिक क्रुद्ध हुए तो उन्होंने मारकाट मचाते हुए लूटपाट भी शुरू कर दी और ज़फर को अब ये लग गया की उसकी हार निश्चित है। बादशाह ज़फर और अन्य लोगो ने वही पास में हुमायूँ के मक़बरे में शरण ली थी, फिर आखिरी मुग़ल बादशाह ने अपने मुग़लों वाली तलवार जो पीडियों से उनके पास चली आ रही थी, को मेजर विलियम हॉडसन को सौंप दी। 21 सितम्बर 1857 को अंतिम मुग़ल या 19वे शाशक बहादुर शाह ज़फर का शाशन ऐतिहासिक रूप से ख़तम हुआ और अंग्रेजों का शाशन शुरू हो गया। ज़फर पर दीवान-ऐ-आम में मुक़दमा चलाया गया और फिर वहां से रंगून (बर्मा) भेज दिया गया।
अब लाल किला अंग्रेज़ों के हाथ में था, वहां अंग्रेज़ों ने सैन्य छावनी बनायीं और वहां से ही कई लड़ाइयों की रूप रेखा तैयार की गयी। क्षतिग्रस्त हुए किले को दुबारा मरम्मत से सही किया, किले में लगाया गया सारा सोना चांदी गायब हो गया और दीवान-ऐ-खास को रहने के लिए भवन व दीवान-ऐ-आम को सैन्य अस्पताल में बदल दिया गया।
लाल किले में फिर अंग्रेज़ों ने दिल्ली दरबार का खेल शुरू किया, सन 1877, 1903, और 1911 में दिल्ली दरबार लगे, और 1911 ही वह वर्ष है जब अंग्रेज़ों ने देश की राजधानी कलकत्ता (कोलकाता) की घोषणा की।
आज़ादी कि लड़ाई
अब लाल किले को आजादी की लड़ाई को देखना था, सुभाष चंद्र बोस ने रंगून में बादशाह ज़फर की कब्र पर आज़ाद हिन्द फौज के सिपाहियों को "चलो दिल्ली" का नारा दिया। जापान की हार के कारण और सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु होने के कारण वह सफल नहीं हो पाये और आज़ाद हिन्द फौज के अधिकारीयों मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान, कर्नल प्रेम सहगल और कर्नल गुरुबख़्श सिंह को यहीं लाल किले में कैद करके रखा और उन पर अंग्रेज़ो द्वारा मुक़दमा चलाया गया। इन तीनो अधिकारीयों की तरफ से आसफ अली, जवाहर लाल नेहरू, भूलाभाई देसाई, कैलाश नाथ काटजू, तेज बहादुर सप्रू ने केस लड़ा, यह एक डिफेन्स कमेटी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने बनायीं थी। उस वक़्त देश भर में एक नारे की गूंज थी कि 'चालीस करोड़ लोगों की आवाज़ - सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़.' देश कि एकता को देखते हुए अंग्रेज़ों ने इन तीनो को रिहा करने का हुक्म दे दिया था।
अब वर्ष आया 1947 का, आज़ादी के दिन इसी लाल किले पर नेहरू ने तिरंगा झंडा लहराया और अंग्रेज़ों का झंडा यूनियन जैक को उतारा गया। तब से लेकर हर साल 15 अगस्त के दिन भारत के प्रधान मंत्री लाल किले पर ध्वजारोहण करते हैं। यह किला 2003 तक भारतीय सेना का कैंप के रूप में प्रयोग में आता रहा और साल 2007 से यह किला अब पुरातत्व विभाग के अंतर्गत आता है। अब यह अंतरराष्र्टीय विरासत के रूप में यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त है।