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कवि दुष्यंत कुमार की जयंती पर | Birth Anniversary of Dushyant Kumar

इस देश में 70 के दशक में जब लोकनायक जय प्रकाश का आंदोलन हुआ, कई छात्र सड़को में आये और परिवर्तन कि बात करने लगे। सड़क पर आये हर आंदोलनकारी कि जुबां में यही दुष्यंत कुमार की लिखी हुयी ग़ज़लों की पंक्तियाँ थी। और यह सिलसिला हमेशा चलता रहा। चाहे वो कोई छात्र आंदोलन हो, या फिर अन्ना हज़ारे का आंदोलन। 


"हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए"


इन धधकती हुयी पंक्तियों के शिल्पी व आधुनिक हिंदी ग़ज़लों के कवि दुष्यंत कुमार का आज जन्मदिन है। उनका जन्म सितम्बर 1 , 1933  को  बिजनौर जनपद (उत्तर प्रदेश) के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। उनका पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। आरम्भिक शिक्षा के बाद उन्होंने अलाहबाद यूनिवर्सिटी (अब प्रयागराज विश्वविद्यालय) से उच्च शिक्षा प्राप्त कि और फिर आकाशवाणी भोपाल में असिस्टेंट प्रोडूसर रहे। प्रयागराज में उनकी दोस्ती कमलेश्वर और मार्कण्डेय जैसे साहित्यकारों के साथ थी। कमलेश्वर कालांतर में उनके समधी भी हुए। अपने लेखन के शुरूआती दौर में वो परदेसी नाम से लिखते थे। दुष्यंत ने अपनी एक कविता में लिखा कि मैं कविता या ग़ज़ल को ओढ़ता -बिछाता हूँ  और वही सुनाता हूँ। और इस ग़ज़ल में कवि ने अपना ग़ज़ल के साथ रिश्ता बताया है।

"मैं जिसे ओढ़ता -बिछाता हूँ ,
वो गज़ल आपको सुनाता हूँ।

एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ।

तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल -सा थरथराता हूँ।"


जब देश में उथल पुथल हुयी तो शायद दुष्यंत कुमार का कवि हृदय भी इस अछूता नहीं रहा और उनका कविताओं के माध्यम से विद्रोह साफ़ झलका। जब सभी राजनितिक पार्टियां देश में गरीबी हटाओ का नारा लगा रहे थे तो दुष्यंत कुमार कि कलम से ये पंक्तियाँ निकली


"कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये."


दुष्यंत से पहले ग़ज़ल को ज्यादातर ग़ज़लें महबूबा के लिए या फिर प्यार में बिछड़ने के बाद कि भावना को दर्शाने के लिए किया जाता था, मगर दुष्यंत कुमार ही कवि रहे जिन्होंने ग़ज़ल को वीर रस दिया। उनकी ज्यादातर कविताओं और ग़ज़लों में बदलाव कि भावना सराबोर रही। सरकारी नौकरी करते हुए सरकार की आलोचना करी। इंदिरा गाँधी की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा की एक गुड़िया की कठपुतलियों में जान है।


एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है।

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है। 
 
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान ।

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।


उनकी कविताओं में बहुत ताकत रही, 1966  में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने दुष्यंत कुमार को "ईश्वर को सूली " कविता के लिए बुलाया और उनको निर्देशित किया की ऐसी कविता आगे से न लिखें। यह कविता उन्होंने १९६६ में बस्तर गोली काण्ड के बाद लिखी थी, जब बस्तर के जनप्रिय महाराज भंज देऊ को उनके समर्थंक कुछ आदिवासियों के साथ पुलिस फायरिंग में मार दिया गया था!


"मैंने चाहा था
कि चुप रहूँ,
देखता जाऊँ
जो कुछ मेरे इर्द-गिर्द हो रहा है।

मेरी देह में कस रहा है जो साँप
उसे सहलाते हुए,
झेल लूँ थोड़ा-सा संकट
जो सिर्फ कडुवाहट बो रहा है।

कल तक गोलियों की आवाज़ें कानों में बस जाएँगी,
अच्छी लगने लगेंगी,
सूख जाएगा सड़कों पर जमा हुआ खून !
वर्षा के बाद कम हो जाएगा
लोगों का जुनून !"


गरीबी में घिरे लोगो की हालत पर उनको हमेशा से ही अफ़सोस होता रहा और इसी वजह से वो हर एक बदलाव चाहते थे जो गरीबी मिटाये,, जो हर एक इंसान को उसका अधिकारित सम्मान दिलाये। उन्होंने लिखा की भूख है तो सब्र कर: 


"भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ।

गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही
पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ।

इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़किया।"


दुष्यंत की लिखी हुयी कवितायें या ग़ज़ल अपने आप में एक बहुत बड़ा भण्डार है, इनकी हर एक कविता में कुछ सन्देश है, उनकी खीज भी है, और उनके अंदर का आवेश भी है। दुष्यंत की कविताओं में अजीब सी शक्ति है जो किसी सोये हुए जमीर को भी जगा देने की शक्ति रखते हैं। वो कभी निराश नहीं हुए, हमेशा उनको एक उम्मीद अवश्य रही, और यही सन्देश उन्होंने अपनी कविताओं की माध्यम से दिया कि अपने हक़ के लिए अवश्य आवाज़ उठाओ और आशावादी रहो। 

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