Mujhko bhi tarkeeb sikha yaar julahe by gulzar
कविता

मुझको भी तरकीब सिखा यार जुलाहे - गुलज़ार

गुलज़ार ने इस सुन्दर कविता को अपनी लेखनी से सुसज्जित किया है, यह कविता जुलाहे के काम को करने वाले व्यक्ति के ध्यान से काम करने को चित्रित करता है और साथ में उसके काम करने कि खूबी को रिश्तों से जोड़ता है।    

मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे
अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़त्म हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई
मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे
मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे

Trending Products (ट्रेंडिंग प्रोडक्ट्स)