गहन है अंधकार ;
स्वार्थ के अवगुंठनों से ,
हुआ है लुंठन हमारा !
खड़ी है दीवार जड़ को घेरकर,
बोलते हैं ज्यों लोग मुंह फेरकर
इस गगन में नहीं दिनकर;
नहीं शशधर ,नहीं तारा।
कल्पना का भी अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु ,रूद्र यह,
कुछ नहीं आता समझ में,
कहां है श्यामल किनारा
प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की ,
खोजता फिरता न पाता हुआ,
मेरा ह्रदय हारा।
उपर्युक्त कविता में निराला जी ने संसार के स्वार्थपरता और नैराश्य पूर्ण स्थिति का सजीव चित्रण करते हुए कहा है कि चारों और गहरा अंधकार छाया हुआ है और यह संसार स्वार्थ के गहरे अंधेरेपूर्ण कारावास की तरह बन गया है संसार की स्वार्थपरता ने हमारी चेतना का नाश कर दिया है स्वार्थ में हमारे ऊपर पर्दा डालकर हमें ही लूट लिया है जड़ता की दीवारें हमें घेरकर खड़ी हैं इसमें हमारा मार्ग अवरुद्ध कर दिया है स्वार्थ के कारण लोग सीधे मुंह बात भी नहीं करते इस आकाश में अब न सूर्य रहा न चन्द्रमा और ना ही तारे। मेरे जीवन रूपी आकाश में सूर्य, चंद्र तथा तारों के लुप्त हो जाने से कई आशाएं और उल्लास की किरणें नहीं दिखाई दे रही हैं। Suryakant Tripathi Nirala
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यहां कवि अपने जीवन की घोर निराशा का वर्णन करते हैं निराशा के क्षणों में कवि को किसी के सहारे की आवश्यकता है कवि अपने असहाय स्थिति का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि कल्पना का अपार सागर भी आज भयंकर रूप से गरजता हुआ मुझे घेर रहा है। मेरी चेतना , मेरी विवेक शक्ति लुप्त हो गई है मैं कुछ भी समझने में असमर्थ सा हूं। मुझे श्यामल तथा सुखी जीवन होने का पता नहीं लगता। अपनी प्रिया को संबोधित करते हुए कवि कहते हैं कि हे प्रिये...! इस स्वार्थ भरे संसार में मुझे किनारा ही समझ नहीं आता तुम मेरे शरीर को ऐसी चेतन शक्ति दो जिससे मुझे छोड़े हुए घर की याद ना आये। मेरी आशा तथा अनुराग का स्तर भर दो जिससे मेरी चेतना जाग उठे। अपने मूल स्थान की खोज करता हुआ मैं घर गया किंतु वह मुझे न मिल सका। इस प्रकार कवि अपनी निराशा को इस कविता के माध्यम से व्यक्त करता है)।