मशहूर हिंदी भाषी कवि सुमित्रानंदन पंत की "ग्राम्या" रचना का प्रकाशन वर्ष 1940 ईस्वी में हुआ। इस रचना में उन्होंने ग्रामीण जीवन के आवर्तों विविर्तो को छूने का प्रयास किया जिससे खूबसूरत ग्रामीण क्षेत्रों की भावनाएं, संवेदनाएं और उनकी बौद्धिक सहानुभूति को प्राप्त किया जा सके। ग्राम्या काव्यात्मक और व्यावहारिक पक्ष को प्रदर्शित करता है जिसमें स्वयं कवि ने आग्रह करके लिखा है -
"पाठकों को ग्रामीण के प्रति केवल बौद्धिक सहानुभूति मिल सकती है। ग्रामीण जीवन में मिलकर, उसके भीतर से अवश्य नहीं लिखी गई है। ग्रामों की जो वर्तमान स्थिति में वैसा करना, एक प्रकार से केवल प्रतिक्रियात्मक साहित्य को जन्म देना होता।"
इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि अपनी सहानुभूति के पंख को बांधना चाहता है जिसमें उसकी उड़ान मर्यादित है। अभिव्यंजन संबंधी दृष्टिकोण पंत का ग्राम्या के वाणी शीर्षक रचना से प्रकट हो जाता है, जिसमें वह चुनौती के स्वर में अपनी वाणी में संबोधित होता है -
"तुम वहन कर सको जन जन में मेरे विचार,
वाणी मेरी, चलिए तुम्हें क्या अलंकार।"
ग्राम्या सन् 1939 से 40 के बीच पंत द्वारा लिखा गया कविताओं का संग्रह है। जिसमें पाठक ग्रामीण जीवन के प्रति बौद्धिक सहानुभूति प्राप्त कर सकते हैं। ग्राम्या की पहली कविता 'स्वप्न पट' से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ग्रामीण जीवन के वर्तमान और भविष्य दोनों जीवनों को स्पष्ट किया गया है। 'महात्मा जी के प्रति' और 'बापू' 'चरखा गीत' और 'सूत्रधर' जैसी कुछ कविताओं में बाहरी दृष्टि से एक विचार वैषम्य जान पड़ता है पर यदि हम आज और कल दोनों देखेंगे तो यह विरोध नहीं रहेगा। अंत में मेरा बस यही निवेदन है कि ग्राम्या में ग्राम्य में दोषों का होना एक स्वाभाविक सी बात है। अतः पाठक सहृदय विचलित ना हो।
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ग्राम्या कविता संग्रह में कवि ने अंतिम श्रेणी में आधुनिक नारी का का चित्रण किया है और उसके अस्वाभाविक जीवनदर्शन तथा क्रियाकलापों के प्रति लज्जा प्रकट की है।
इस कविता संग्रह के ग्राम कवि खंड की कविता
यहाँ न पल्लव वन में मर्मर,
यहाँ न मधु विहगों में गुंजन,
जीवन का संगीत बन रहा
यहाँ अतृप्त हृदय का रोदन!
यहाँ नहीं शब्दों में बँधती
आदर्शों की प्रतिमा जीवित,
यहाँ व्यर्थ है चित्र गीत में
सुंदरता को करना संचित!
यहाँ धरा का मुख कुरूप है,
कुत्सित गर्हित जन का जीवन,
सुंदरता का मूल्य वहाँ क्या
जहाँ उदर है क्षुब्ध, नग्न तन?-
जहाँ दैन्य जर्जर असंख्य जन
पशु-जघन्य क्षण करते यापन,
कीड़ों-से रेंगते मनुज शिशु,
जहाँ अकाल वृद्ध है यौवन!
सुलभ यहाँ रे कवि को जग में
युग का नहीं सत्य शिव सुंदर,
कँप कँप उठते उसके उर की
व्यथा विमूर्छित वीणा के स्वर!