बिहार का जिला बेगूसराय तब बंगाल प्रेसीडेंसी था, जिस वक्त की बात हम आगे करेंगे। गंगा नदी के दांयी ओर बसा एक रमणीक गांव सिमरिया, जहा पर मनरूप देवी व बाबू रवि सिंह के घर में एक बालक ने 23 सितम्बर 1908 को जन्म लिया। घर में नुनुवा बोलते थे, तब कोई नहीं जनता था की यह बालक आगे जाकर राष्ट्रकवि कहलाया जायेगा। हम बात कर रहे हैं रामधारी सिंह दिनकर की।
उनके पिताजी गांव में ही किसान थे, उनके पिताजी का देहांत तब हुआ जब दिनकर मात्र 3 वर्ष के थे। उनकी माँ ने ही उनका लालन पालन किया और उनको स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा। बचपन में किसानी को बहुत करीबी से देखने के कारण दिनकर ने उनकी व्यथा को भली भांति जाना और इसीलिए उन्होंने किसानो के लिए लिखा-
जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है
मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है
बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं
बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं
शिक्षा दीक्षा
अपने पढाई के समय में वह 15 किलोमीटर गंगा नदी को पार करके जाते थे, सिमरिया व मोकामा के बीच का उनका सफर रोज नाव से होता था और वह अपने आखिरी कक्षा के पीरियड को इसीलिए नहीं पढ़ पाते थे क्योंकि आखिरी नाव का समय वही था। मीट्रिक की परीक्षा उन्होंने 1928 में पास किया। आगे की पढाई के लिए पटना गए और 1932 में उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से BA पास किया। उस वक्त पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाप एक क्रांति चल रही थी।
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स्वतंत्रता संग्राम के काल में रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं ने जान मानस को जागृत करके रखा। उनकी वीर रास में लिखी हुयी कवितायेँ वर्षों से सुप्त जान मानस को आज भी जगती हैं। दिनकर को राष्ट्रकवि की उपाधि दी गयी है। उनकी कवितायेँ हर एक जन तक बहुत ही आसानी से पहुंच जाती है। आज़ादी के बाद भी दिनकर ने अपनी लेखनी से जनता को जगाने का काम जारी रखा और भारत और चीन के युद्ध के खंड काल में वो अपनी कलम से वीर रस से ओतप्रोत कविताओं की रचना करते रहे। सिंहासन खाली करो कि जनता आती है या फिर समर शेष है तो हर आंदोलनकारी की जुवान पर रही है। 1940 में लिखी कविता
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
हिमालय की विराटता को कवि दिनकर ने बहुत करीब से अपनी कविता में जिया और साथ में हिमालय की व्यथा को भी समझा। उन्होंने हिमालय को भारत का हिम मुकुट माना। इसी से प्रभावित होकर कवि व वर्तमान शिक्षा मंत्री डॉ रमेश पोखरियाल निशंक ने भी इसी तरह से एक कविता लिखी है, जो हम आपको किसी और दिन बताएँगे। अभी दिनकर की लेखनी से प्रस्फुटित कविता-
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरुष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
भारत के आज़ाद होने के पश्चात् जवाहर लाल नेहरू अंतरिम प्रधानमंत्री बने, तब तक संविधान नहीं बना था। तब दिनकर ने नेहरू के लिए जनता की तरफ से कुछ यादगार पंक्तियाँ लिखी
सब देख रहे हैं राह,
सुधा कब धार बांधकर छूटेगी, नरवीर !
तुम्हारी मुट्ठी से किस रोज रौशनी फूटेगी?
है खड़ा तुम्हारा देश, जहां भी चाहो, वहीं इशारों पर !
जनता के ज्योतिर्नयन ! बढ़ाओ कदम चांद पर, तारों पर.
है कौन जहर का वह प्रवाह जो-तुम चाहो औ' रुके नहीं
है कौन दर्पशाली ऐसा तुम हुक्म करो, वह झुके नहीं?
न्योछावर इच्छाएं, उमंग, आशा, अरमान जवाहर पर,
सौ-सौ जानों से कोटि-कोटि जन हैं कुर्बानजवाहर पर.
जां है हिंदुस्तान, एशिया को अभिमान जवाहर पर,
करुणा की छाया किये रहें पल-पल भगवान जवाहर पर.
रामधारी सिंह दिनकर ने जीने की राह में मृत्यु से निडर होने को बताया, आज़ादी से जीने को ही उन्होंने वीरों का जीना बताया और इन पंक्तियों को लिख कर अपना सन्देश सुनाया-
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए,
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाए,
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है,
मरता है जो एक ही बार मरता है ।
तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे !
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे !
राजनीती में दिनकर किसी एक विचारधारा का समर्थन नहीं करते थे, गाँधी के प्रति उनका भाव बहुत अच्छा थ। गाँधी के प्रति व कम्युनिज्म का तालमेल के साथ उन्होंने लिखा है-
"अच्छे लगते मार्क्स, किंतु है अधिक प्रेम गांधी से.
प्रिय है शीतल पवन, प्रेरणा लेता हूं आंधी से."
और अंत में उनके द्वारा लिखी गयी कालजयी रचना समर शेष है की कुछ पंक्तियाँ
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,
किसने कहा, युद्ध की बेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?
कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।