भगवान राम का जीवन चरित्र हमारे देश की "संस्कृति का प्राण" है। वाल्मीकि, राम के लोक कल्याणकारी चरित्र को काव्य रूप में लिखने वाले संस्कृत भाषा के पहले कवि थे। "त्रिकालदर्शी" भगवान वाल्मीकि ज्योतिष विद्या और खगोल विद्या के प्रकांड विद्वान थे। सतयुग, त्रेता युग और द्वापर तीनों कालों में वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है। नागा प्रजाति में जन्मे वाल्मीकि 'प्रचेता' (वरुण देव) के पुत्र माने जाते हैं। इनके बचपन का नाम "रत्नाकर" था। मनुस्मृति के अनुसार वे प्रचेता, वशिष्ठ, नारद, पुलत्स्य आदि के भाई थे। एक महान ऋषि बनने से पहले वाल्मीकि को एक विख्यात डाकू के रूप में जाना जाता था।
इतिहास तथा बाल्यकाल
वाल्मीकि का जन्म अश्विनी माह की पूर्णिमा के दिन हुआ था। स्कंद पुराण और अध्यात्म रामायण के अनुसार वाल्मीकि ब्राह्मण जाति के थे और इनका नाम "अग्निशर्मा" था। माना जाता है कि वाल्मीकि महर्षि कश्यप और अदिति के दसवें पुत्र 'प्रचेता' की संतान हैं इनकी माता का नाम 'चतुर्ष्णि' और भाई का नाम 'भृगु' था।
एक किवंदती के अनुसार बचपन में वाल्मीकि का अपहरण एक "भीलनी" ने कर दिया था। वह उसे प्यार से "रत्नाकर" बुलाती थी । भीलनी ने बड़े प्रेम से रत्नाकर का लालन-पालन किया। रत्नाकर के लालन-पालन के लिए भीलनी बुरे काम (दस्यू कर्म) किया करती थी जिसका प्रभाव व्यापक रूप से रत्नाकर के जीवन पर पड़ा।
जब रत्नाकर बड़े हुए तो उनका विवाह भी भील समुदाय की एक भीलनि से कर दिया गया। अपने परिवार का पालन पोषण करने के लिए रत्नाकर भी दुष्कर्म किया करता था। वह लोगों का धन लूटा करता था। वन के मध्य में पथिकों का धन लूटना उसकी जीविका का साधन था। यदि धन लूटने के काम में संदेह हो तो वे हत्या करने में भी संकोच नहीं करते थे।
कहा जाता है कि एक बार वे वन में बैठे राहगीर का बेचैनी से इंतजार कर रहे थे और उन्होंने एक मुनिवर को आते हुए देखा, देखते ही वे फूले न समाये। अपने लाल-लाल नेत्रों को घुमाते हुए रत्नाकर ने भयंकर स्वर में कहा- तुम्हारे पास जो कुछ भी है सब मुझे दे दो नहीं तो तुम्हारे प्राणों का संकट होगा।
मुनिवर ने उत्तर दिया- लुटेरे मेरे पास तो कुछ भी नहीं है लेकिन तुम इस लुटे हुए धन का क्या करते हो? दूसरों को लूटना पाप कर्म है। क्या तुम यह नहीं जानते?
रत्नाकर ने जवाब दिया- लुटे हुए धन से में अपने परिवार का पालन पोषण करता हूं जो एक महान कार्य है।
मुनिवर ने कहा- पाप कर्म से कमाए गए धन से पाले हुए तुम्हारे परिवार के सदस्य क्या तुम्हारे इस पाप के भागीदार होंगे?
वह बोले- नहीं जानता लेकिन उनसे पूछ कर बताऊंगा।
रत्नाकर ने ऋषि को पेड़ पर रस्सी से बांधकर कुटुंबियों से पूछने चले गये। जब उसने यह प्रश्न अपने कुटुंबीयों से किया तो वे क्रुद्ध होकर बोले- तुम्हारे पाप कर्म का भागीदार हम क्यों बनेगें। हमें क्या पता तुम यह धन कैसे कमाते हो? हमने तो नहीं कहा था कि तुम दुष्कर्म करो। यह सुनकर रत्नाकर अत्यंत दुखी हुआ। शीघ्र जाकर उसने मुनिवर को खोलकर सारी बात बताई।
हिर्दय परिवर्तन और राम भक्ति की ओर अग्रसर
अपने कुटुंबियों की बात सुनकर रत्नाकर को बेहद दुख हुआ। मुनिवर ने उसके शोक को शांत करने के लिए "राम" नाम जपने का उपदेश दिया। राम शब्द के उच्चारण में असमर्थ रत्नाकर ने राम शब्द को उल्टा मरा, मरा जपना प्रारंभ किया। बहुत वर्षों तक साधना में लीन होकर उन्होंने कठोर तप किया और मरा, मरा जपते -जपते वे इतने लीन हो गए कि शब्द राम-राम में परिवर्तित हो गया। राम नाम के तप में वे इतने लीन हो गए कि उनका शरीर दीमकों की मिट्टी से ढह गया।
लंबे समय बाद वरुण देव के लगातार जल की धारा से उनके शरीर से दीमकों की मिट्टी धुल गयी। उनका शरीर पुनः हो प्रकट हुआ तब मुनियों ने उनकी स्तुति और पूजा की। वे आंखें खोलकर उठ बैठे। दीमकों की मिट्टी से निकलने के कारण वाल्मीकि "प्रचेता" (वरुण)के द्वारा मिट्टी के धुल जाने के कारण "प्रचेतस" कहलाए। जिसका वर्णन रामायण के उत्तरकांड में वाल्मीकि द्वारा किया गया है। जिसमें लिखा गया है कि हे राघव पुत्र! में प्रचेता का दसवां पुत्र हूं।
नारद मुनि ने सुनाई बाल्मीकि को राम कथा
वाल्मीकि ने मुनि नारद से भगवान राम का लोक -कल्याणकारी चरित्र सुना। जब उन्होंने रामचरित्र को सुना तब से उनके मन में राम के चरित्र को काव्यबद्ध करने की इच्छा जाग उठी।
एक बार की बात है बाल्मीकि दोपहर के स्नान के लिए प्रयाग मंडल के अंतर्गत तमसा नदी पर गए हुए थे। वन की शोभा को देखते हुए महामुनि ने स्वच्छंद घूमते हुए एक क्रौंच पक्षी के युगल को देखा वह रतिक्रीड़ा कर रही थी। अचानक किसी शिकारी ने उस युगल पक्षी के जोड़े पर बाण मार दिया। भूमि पर गिरी हुई, खून से लथपथ क्रोंची यह देखकर करुण विलाप करने लगी इस करुण विलाप को सुनकर मुनि के हृदय में छिपी शोकाअग्नि से पिघला हुआ करुण रस इस श्लोक के बहाने इस प्रकार निकल पड़ा।
"मा निषाद प्रतिष्ठां त्वगमः शाश्वती समः।
यत्क्रोंचमिथुना देवकम अवधिः काम मोहितम"।।
(हे निषाद..! तू चिरकाल तक रहने वाले सुख को कभी प्राप्त नहीं कर पाएगा। क्योंकि तूने क्रोंच के जोड़े में से काम में मुग्ध अर्थात काम क्रीड़ा में रत एक नर क्रौंच को मार डाला)।
यह श्लोक वेद से पृथक लोक में छंदों का नया जन्म था। शिकारी को श्राप देने के बाद वाल्मीकि के हृदय में महान चिंता जाग गई। उन्होंने महसूस किया कि पक्षी के शोक से पीड़ित मैंने यह क्या कर दिया। इसी बीच ब्रह्मा ने महामुनी के पास जाकर मुस्कुराते हुए कहा- हे मुनि! पीड़ित पर दया करना महापुरुषों का स्वाभाविक धर्म है। श्लोक बोलते हुए तुमने धर्म का पालन किया है। तुम्हें इस विषय में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। ब्रह्मा जी ने कहा सरस्वती मेरी इच्छा से ही तुममें प्रवृत हुई है। अब तुम्हें वह काम करना है जो तुमने नारद मुनि से सुना है। वैसे ही तुम भगवान रामचंद्र जी के संपूर्ण चरित्र का वर्णन करो जब तक पृथ्वी, पर्वत, नदी और समुद्र रहेंगे तब तक संसार में रामकथा चलती रहेगी। मेरी कृपा से तुम्हें संपूर्ण राम चरित्र ज्ञात हो जाएगा। ऐसा आदेश देकर ब्रह्मा जी अंतर्ध्यान हो गए।
इसके बाद बाल्मीकि ने योगबल से नारद जी के द्वारा बताये गये संपूर्ण रामचरित को जानकर गंगा और तमसा के मध्य स्थित तट पर "सात कांडों" वाले "रामायण" नाम के इस महाकाव्य की रचना की। इस प्रकार महामुनि महर्षि वाल्मीकि संसार में "आदिकवि" के यश से प्रसिद्ध हो गए।