"वह निरर्भ आकाश, जहां की निर्विकल्प सुषमा में,
न तो पुरूष में पुरूष, न तुम नारी केवल नारी हो,
दोनों है प्रतिमान किसी एक ही मूल सत्ता के,
देह बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी है"
दिनकर को छायावादी "हैंगओवर" खुमार का कवि माना जाता है। प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर का एक महाकाव्य "उर्वशी" जिसे कामाध्यात्म की कविता कहा जाता है जिसमे प्रेम की अतीन्द्रियता का वर्णन है। उन्होंने अपनी द्विज परम्परा में इस काव्य की रचना की है। Urvashi By Ramdhari Singh Dinkar
दिनकर की 'उर्वशी' में 'उर्वशी' एक वैश्या है और वैश्या होना नारी के लिए अपमान है। उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक, तथा श्रोत्र की कामनाओं का प्रतीक है । उर्वशी की विषय वस्तु का केंद्रीय तत्व 'काम' है उर्वशी अतिंद्रीय प्रेम से अतृप्त होकर इंद्रिय प्रेम पाने के लिए धरती पर आयी है। उर्वशी ने पहली बार स्वर्ग में पुरुरवा के दर्शन किये और दोनों में प्रेम जागृत हो जाता है।
'पुरुरवा' उर्वशी का नायक है जो रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द से मिलने वाले सुखों से अच्छादित मनुष्य है जो इंद्रिय सुख का पर निसार होने वाला मनुष्य है। जो देह का तिरस्कार नहीं करता।
दिनकर की उर्वशी में कामआध्यात्म का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि मनुष्य का धर्म प्रारंभ में विवाहित स्त्री पुरुष के अलावा तीसरे से यौन संबंध स्थापित करने पर रोक लगाता है लेकिन जब धर्म का निवृत्तिवादी रूप प्रकट हुआ तब कामआचार दुराचार का प्रयाय बन गया तब यह माना जाने लगा कि जब स्त्री पुरुष एक दूसरे को जान लेते हैं तब वे ईश्वर के पास नहीं पहुंच पाते हैं। काम पर नियंत्रण करना अत्यंत कठिन कार्य है काम की वायु में धर्म का दीपक बुझ जाता है।
दिनकर की उर्वशी में लिखा गया है कि प्रेम को केवल शारीरिक मिलन ही नहीं अपितु शरीर को धर्म के आगे को छूने वाला छितिज कहा गया है दिनकर जी के अनुसार काम को धर्म का बाधक समझना मात्र एक भ्रम है।
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उर्वशी की कामआध्यात्मिक पृष्ठभूमि को आधुनिक युग में विज्ञान के अनुसंधानओं द्वारा काम की महिमा को बढ़ाया और बताया है ऐसे मनोवैज्ञानिक उभकर सामने आए जिन्होंने काम के स्रोत से होकर तटों तक पहुंचने का काम किया। इनमें मनोविश्लेषणवादी मनोवैज्ञानिक फ्रायड का नाम सबसे पहले आता है जिन्होंने काम को त्याज्य नहीं माना। इसके अतिरिक्त सूफी मत , शाक्य मत, तंत्र वाद ,और वैष्णव का सहज क्रिया संप्रदाय सभी धर्मों की धारा काम के तटों को स्पर्श करती है।
उर्वशी की शाक्त दृष्टि
"तंत्रवाद के अनुसार" सृष्टि का विकास और उद्भव शिव और शक्ति के समागम से होता है शिव को ही शक्ति स्वरूपा माना जाता है दोनों स्वरूपतः अभिन्न हैं। जिसमें लिंग भेद नहीं है इसलिए यह अलिंग होकर भी सर्वलिंग रूप में प्रकाशित होता है।
"देवता एक है शायित कहीं इस मंदिर शांति की छाया में ,
आरोहण के सोपान लगे हैं त्वचा, रुधिर में काया में,
परिरम्भ- पाश में बंधे हुए उस, अंबर तक उठ जाओ रे!
देवता प्रेम का सोया है चुम्भन से उसे जगायो रे"।
(शाक्त धर्म में अपने वीर कोटी के साधकों से कहा है कि तुम इस भाव से समागम करो कि प्रत्येक पुरुष में शिव और प्रत्येक नारी में शिवा विद्यमान है । दिनकर जी का मानना है कि चुम्बन और चिंतन एक ही सत्य के सागर में पहुंचकर रीत जाने वाली 2 नदियां हैं त्वचा और रुधिर की उष्णता को भोगते हुए वह ईश्वर तक पहुंचाता जाता है।)
प्रेम, काम और संभोग जैसे प्रश्न उठाना पारंपरिक भारतीय समाज में प्रायः वर्जित है लेकिन उर्वशी के माध्यम से इस आध्यात्मिक मुकुट को हटाया गया है ।कवि का मानना है कि काम अवर्ड्य नहीं है अपितु धर्म और अर्थ की भांति उसे भी पुरुषार्थ का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य समझा जाना चाहिए क्योंकि धर्म से अर्थ, अर्थ से काम और काम से पुनः धर्म की प्राप्ति की जा सकती है।