इन्होंने हिंदी की खड़ी बोली को एक कोमलता और मिठास के साथ अपने काव्य, अपनी कहानियों, अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया है। इनके द्वारा हिंदी को उस पद पर पहुंचाया गया जहां पर किसी भाषा का पहुंचना कठिन माना जाता है। इनकी मृत्यु 11 सितंबर 1987 को प्रयाग में हुई की थी। महादेवी वर्मा द्वारा अनेक काव्यों की रचना की गई इनमें नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, प्रथम आयाम, सप्तपर्णा, यामा, आत्मिका, नीलम्बरा, संधिनी, अग्निरेख आदि प्रमुख हैं।
कहते हैं अनुभूतियों का घड़ा जब भर जाता है तो कवि के ह्रदय से ऐसे उदगार छलकते हैं, जिन्हें वह कविता का रूप दे देता है और इन कविताओं को शब्दों के द्वारा सजाया जाता है। महादेवी वर्मा ने भी अपने मन में बसी इन्हीं अनुभूतियों को अपने काव्य में बड़ी ही मर्मस्पर्शी और गंभीरता से व्यक्त किया है। उनकी अभिव्यक्ति में संवेदनात्मक तीव्रता और वेदना स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
उन्होंने अपना काव्य वेदना और करुणा की कलम से इस प्रकार लिखा है कि विरह की वेदना उनकी अनुभूतियों के रंगों से सजी हुई जान पड़ती है और उनके काव्य में उनकी वेदना और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति सहजता से ही प्रकट होती है। उनके काव्य की पीड़ा की तुलना मीरा के काव्य से की गई है।
महादेवी वर्मा के काव्य का प्राण तत्व या यूं कहें कि उनके काव्य की मूल पृष्ठभूमि उनकी वेदना, पीड़ा, दुख और निर्वाण रहे हैं। यह बात उन्होंने खुद स्वीकार की है कि दुख उनके जीवन का एक निकटतम हिस्सा रहा है और जो सारे संसार को एक सूत्र में बांधने की क्षमता रखता है वह भाव है दुख।
महादेवी वर्मा की कविताओं का परम तत्व या प्रतिपाद्य अपने प्रिय से बिछड़ना और उसे खोजने की आतुरता है। वह अपने काव्य में आत्मा और परमात्मा के वियोग को प्रस्तुत करती हैं और उसकी सुंदर रचना पाठकों के मन को इस प्रकार मोह लेती है कि मानो उनका स्वयं का चित्रण और अनुभूति उसमें की गई हो। जो भी वास्तविक जीवन में घटित होता है वह सभी अपनी रचनाओं में भरकर महादेवी वर्मा अपने काव्य के प्रति आकर्षण पैदा करती हैं।
दुख और निर्वाण शब्द बौद्ध धर्म के प्रमुख अंग रहे हैं। इस तरह से यह ज्ञात होता है कि महादेवी वर्मा का बौद्ध धर्म के प्रति कितना आकर्षण रहा है। इसके लिए उन्होंने एक लंबा निबंध 'करुणा का संदेशवाहक' लिखा है और उसकी व्याख्या भी की है। इन्होंने स्त्री धर्म पर भी लिखा है। उनके अनुसार पति, घर और रसोई तथा बच्चे यहां तक ही औरत सीमित नहीं है बल्कि उसके कई और आयाम भी हैं। महादेवी वर्मा स्त्री के घर से से बाहर निकलने के खतरों से भी परिचित हैं परंतु वे यह कभी नहीं चाहती कि इन खतरों से डरकर स्त्री घर में ही बंधकर रह जाए। इस तरह के विचार उनकी कहानियों तथा काव्य में दिखाई पड़ते हैं।
महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'यामा' एक कविताओं का संग्रह है। इसमें महादेवी वर्मा की चार कविता संग्रह नीहार (रचना काल 1924-1930), रश्मि (रचना काल 1928-1931), नीरजा (रचना काल 1931-1934) और सांध्यगीत ( रचना काल 1934- 1936) का संकलन है। महादेवी वर्मा की इस रचना को हिंदी साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार से 1982 में नवाजा गया।
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महादेवी वर्मा के इस काव्य संग्रह का नाम 'यामा' इसलिए रखा गया क्योंकि यामा का अर्थ होता है- उषाकाल से लेकर संध्या तक जो दिन के चार याम यानी कि पहर हैं। उनका बखान इन कविताओं के माध्यम से किया गया है। महादेवी वर्मा ने अपने कविता संग्रह के नाम इन्हीं चार पहरों को प्रतीक बनाते हुए रखे हैं और उनका संकलन एकत्र करके यामा शीर्षक के नाम से प्रकाशित किया गया।
यह चारों संग्रह यहां इकट्ठे हुए हैं, इसीलिए पढ़ने वाले को यह लग सकता है कि सामान्य रूप से 'यामा' (याम या पहर का) बहुवचन है। इसके इतर वास्तविकता यह है कि यामा शब्द महादेवी वर्मा द्वारा स्वयं गढ़ा हुआ है। 'याम' शब्द का बहुवचन यदि किया जाए तो 'यामों' होता है यानी कि दिन के चारों याम, परंतु चारों के एकत्र स्त्रीलिंग के लिए यहां पर यामा शब्द इस्तेमाल किया गया है। महादेवी वर्मा को संस्कृत भाषा में भी महारत हासिल थी इसीलिए उन्होंने यामों बहुवचन अपनी पुस्तक का नाम नहीं रखा और उस शब्द को यामा कर दिया गया।
'यामा' में महादेवी वर्मा द्वारा नीहार से लेकर सांध्यगीत तक के सारे शीर्षक सम्मिलित किए गए हैं। संपूर्ण रात्रि का काव्य गायन 'दीपशिखा' नाम से अलग से प्रकाशित किया गया है। यामा का प्रथम प्रकाशन सन् 1931 में किताबिस्तान, इलाहाबाद लंदन से हुआ था। इसकी प्रथम भूमिका 'अपनी बात' के अंश के नीचे 17/ 8/31 तारीख पड़ी हुई है, जिससे पता चलता है कि यह काव्य संग्रह 1931 में प्रकाशित हुआ है। महादेवी वर्मा के दूसरे और चौथे 'रश्मि' तथा 'सांध्यगीत' की भूमिका इस काव्य संग्रह में उपस्थित है, परंतु तीसरा काव्य संग्रह 'नीरजा' और पहला 'नीहार' की भूमिका इस में संग्रहित नहीं की गई क्योंकि यह भूमिका किसी और के द्वारा लिखी गई थी।
इस सब के बावजूद भी यामा का पहला संस्करण किताबिस्तान, इलाहाबाद लंदन से 1931 में प्रकाशित हुआ और यह डबल रॉयल आकार के आर्ट पेपर पर छपा था। हल्का बादामी रंग उसके पृष्ठों का जो उस वक्त था, आज भी वही है और मोड़ने पर भी वे टूटते नहीं हैं। उस समय इस संस्करण का मुद्रण इंडियन प्रेस इलाहाबाद द्वारा किया गया था तथा इसका मूल्य कुल ₹14 था। इसमें कुल 10 चित्र शामिल हैं और चित्र के ऊपर चित्रकार: महादेवी वर्मा और नीचे उस चित्र की संख्या दर्ज है।
महादेवी वर्मा के अनुभूतियों की गंभीरता उनके काव्य में साफ- साफ झलकती है और यह पाठक को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। इसी तरह के काव्यों का संग्रह है 'यामा'।